गृहस्थ जीवन और गुरु का अविर्भाव
सन १९६३ में हलधर के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया उनको अपनी माता की इच्छा से विवाह के लिए तैयार होना पड़ा यह श्री गोपीनाथ शर्मा की ज्येष्ठ पुत्री मां मनोरमा जो नाल बड़ी के गांव सुमिरि गांव से थे। उनकी उम्र उस समय केवल १६ वर्षों की थी, हलधर अपनी मां की प्रसन्नता के लिए इस प्रस्ताव के लिए राजी हो गए और उन्होंने विवाह नवंबर महीने की सोमवार को तय करने के लिए कहा। हलधर को जन्मपत्री मिलाकर विवाह करने में विश्वास नहीं था मां मनोरमा उनके परिवार के लिए देवी स्वरूप सिद्ध हुई जो कई दिनों तक संतान न होने के पश्चात आई थी। एक दिन मनोरमा की माँ ने स्वर्णिम अखरोट के पत्ते को शिव भगवान को चढ़ाने का स्वप्न देखा, और उसके पश्चात उन्हें शिवालय से एक सुंदर पुत्री प्राप्त हुई । मां मनोरमा को हलधर का मन जीतने में ज्यादा समय नहीं लगा शादी के कुछ दिनों के पश्चात हलदर ने गुवाहाटी लौटने का निर्णय लिया उन्होंने मां मनोरमा को अपनी माता की देखभाल करने के लिए छोड़कर वह अपनी कर्मभूमि लौट आए, जिसे मां मनोरमा ने बिना किसी झिझक के मंजूर कर लिया। उन्हें यह सिखाया गया था कि शादी के पश्चात अपने सास ससुर की सेवा करना ही उनका परम कर्तव्य है, और उन्हें अपने माता पिता के समान समझना चाहिए।
शादी के बाद हलधर ने एक प्रकाशन केंद्र खोला और कुछ पुस्तकें प्रकाशित की। उन दिनों बच्चों के लिए कोई कहानी और पत्रिका नहीं थी। हलधर ने एक पत्रिका “ना ज्योति” शुरू किया। बच्चों के लिए इस कार्य के लिए उन्हें कोलकाता रहना पड़ा। इसमें तीन भाग थे, एक नवयुग लेखकों के लिए दूसरा मध्यमवर्ग के लेखकों के लिए और तीसरा हिंदी लेखकों के लिए। यह आसाम में बहुत प्रचलित हुआ क्योंकि यह उस समय की एक अनोखी पत्रिका थी और इसे खूब प्रसिद्धि मिली। यह आसामी और हिंदी में प्रकाशित होती थी। हलधर के कोलकाता में रहने के कारण कुछ प्रतिनिधियों को आसाम में इसके प्रसार के लिए रखना पड़ा, दुर्भाग्य से इन प्रतिनिधियों ने जिस समझाते के लिए तैयार हुए थे, उसका पालन नहीं किया और पैसे का भुगतान नहीं किया। हलधर ने सोचा उनका कलकत्ता और रुकना नामुमकिन है। उन्हें राजनीतिक अंचल से भी गुवाहाटी लौटने का निवेदन आया। अंत में एक बार विमला प्रसाद चालिहा ने उन्हें जोर देकर दृढ़ता पूर्ण किसी समस्या के समाधान के लिए आसाम बुलाया । उसी समय उनकी मां ने उनकी पत्नी को भी उनके पास रहने के लिए भेज दिया। दोनों गोकुल आश्रम मधुमक्खी पालन केंद्र में रुके, और इसके सुधार के लिए कार्य किया हलधर ने गांव के विकास के लिए भी कार्य किया इसी बीच उन्होंने कुछ धार्मिक सामाजिक और ऐतिहासिक नाटक लिखे और उसमें अभिनय भी किया।
गुरु गुप्तेश्वर नंदगिरी महाराज
सन १९६८ में उनका बड़ा पुत्र हुआ उसी वर्ष जून महीने में वह अपने कुछ मित्रों के साथ गढ़भंगा के जंगल घूमने गए। उस समय वहां कोई रास्ता ना था, जंगल जाने के लिए घना जंगल था, और वहां जंगली पशु निवास करते थे यह कोई आश्चर्य की बात न थी कि उन्हें जंगल पार करते समय कोई शेर, हाथी, सियार या सांप ना काटे सभी बंदूक लेकर निकले। उन्होंने कांता नदी को के तट को पकड़ कर आगे बढ़े हलधर ने एक विशाल नंगे आदमी को नदी के तट के बीच चट्टान पर बैठे देखा, उनके साथियों ने उनको नहीं देखा, क्योंकि वह बातचीत में इतने व्यस्त थे, और वे जंगल में आगे बढ़ गए थे। हलधर ने उन महानुभाव के पास पहुंचकर उनसे बातचीत करने की कोशिश कि, उन्होंने तमिल, तेलुगू, हिंदी, गुजराती, मराठी और कन्नड़ में उनसे संवाद करना चाहा मगर वे कुछ भी नहीं समझ पाते थे। फिर तो उन्हें इशारे से ही संवाद करना पड़ा जो दोनों समझ रहे थे। अचानक हलदर को अपना पूर्व जन्म का आभास होने लगा, और वह उसी में खो गये उन्हें लगा उस महानुभाव के साथ सारा जीवन उन्हें व्यतीत करना है। हलदर ने उन अजनबी को अपने साथ घर लौटने के लिए कहा परंतु उन्होंने इंगित किया कि यह संभव नहीं है, क्योंकि वह निर्वस्त्र है उन्होंने यह भी बताया कि वह ऐसे किसी भी व्यक्ति के साथ रहना नहीं चाहते जो अपनी बात को ना रख सके। हलधर ने उन्हें आश्वासन दिलाया कि वे अपने वचन के पक्के रहेंगे, परंतु वे नंगे बाबा तो किसी तरह भी प्रभावित नहीं हो रहे थे। वे एक बात पर तैयार हुए कि जिस दिन हलदर अपनी वचनबद्धता से पीछे हटेंगे, वे उन्हें त्याग कर चले जाएंगे। हलधर ने उन्हें अपना शॉल उड़ाकर घर ले आए, उन्होंने तुरंत एक गेरुआ वस्त्र देकर उन्हें स्नान कराकर उन्हें बाबा कहकर बुलाने लगे। एक महीनों के अंदर ही बाबा टूटी-फूटी हिंदी में बोलना आरंभ किया। कपड़ा पहनना और स्नान करना स्वयं आरंभ किया। वे दूसरों के साथ मिलना-जुलना और अकेले घूमना भी सीख गए। उनकी हिंदी कुमायूं के क्षेत्र की भाषा के समान थी। धीरे धीरे वे वशिष्ठ आश्रम प्रातः स्नान के लिए कांता नदी में जाने लगे।
एक दिन बाबा के साथ हलधर वशिष्ठ आश्रम के बाहर घूमने निकले उन्होंने अचानक बताया, कि वशिष्ठ आश्रम के पूर्वी ओर करीब ९ फीट नीचे चार गणेश की मूर्तियां हैं उन्हें खोदने का आदेश दिया उन्होंने यह भी बताया कि जिस दिन में खुदाई से गणेश भगवान निकलेंगे, उस दिन भारत के एक नामी जादूगर की मृत्यु हो जाएगी। दूसरे दिन हलधर ने बाबा के ४०-५० शिष्यों के साथ उस स्थान की खुदाई का कार्य आरंभ किया जैसे की बाबा ने बताया था। ९ फीट नीचे तीन गणेश की मूर्तियां निकली भक्तगण उनकी पूजा आरंभ कर दी २ घंटे के बाद समाचार मिला कि भारत के राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु हो गई है (३ मई १९६९ )। तभी हलधर ने सोचा बाबा ने तो किसी जादूगर के मरने की घोषणा की थी, जाकिर हुसैन जादूगर कैसे हुए। सभी बाबा से अपने इस संदेश को लेकर पहुंचे और बाबा ने बताया मेरी समझ में जादू कोई माया मोह नहीं है बल्कि यह सृष्टि का एक विज्ञान है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान है जिससे पदार्थ की सृष्टि होती है परंतु माया तो एक भ्रम है जैसे एक पागल अपने विचारों की सृष्टि करता है जो सच्चाई नहीं होती है। जादूगर भी इसी तरह मायाजाल की सृष्टि करते हैं यह इंद्रजाल से या किसी रासायनिक क्रिया से किया जाता है। रावण इस विद्या के जानकार थे वह मायापुरी या मयोंग का राजा था। इसी तरह वैदिक काल में तीन देवता आसाम में अवतरित हुए वे सभी वैज्ञानिक ऋषि और जादूगर थे, वे सभी शिव भक्त थे और जल के नीचे बैठकर तपस्या करते थे। एक समय असम पूरा जल के नीचे था प्राकृतिक विपदाओं से चारों ओर भूमि ऊपर उठकर बीच में ब्रह्मपुत्र नदी का आविर्भाव हुआ। मयोंग भी पानी के नीचे था, मयोंग के दक्षिण में कपिल ही नदी और इसके पश्चिमी तट पर जनक की राजधानी प्राज्ञज्योतिषपुर और उनका राज्य था। राजऋषि नरकासुर ने कामाख्या देवी की पूजा की थी। मायापुर (मयोंग) के उत्तर में राजऋषि बान ने तपस्या की थी। रावण जादू का प्रवर्तक था। अपनी ध्यान शक्ति से उसने कई अस्त्रों की सृष्टि की थी। वह विज्ञान भौतिक और आध्यात्मिक विज्ञान का ज्ञाता था। अपने ज्ञान से उसने विश्व की सभी शक्तियों को अपने नियंत्रण में कर लिया था. रावण, नरकासुर और बान तीनों ने मनुष्य के भलाई के लिए काफी कार्य किए थे। बाद में तीनों एक शक्ति में मिल गए जिसे विष्णु या राम कहते हैं। भारत में आज (१९९० ) ८० करोड़ की आबादी है जिसमें १० करोड़ मुसलमान है । एक मुसलमान भी यदि राष्ट्रपति बन जाता है तो कोई भी हिंदू इसका विरोध नहीं करते । जाकिर हुसैन इस तरह एक जादूगर था उसने सभी को अपना समझा सभी को अपना समझना जादू ही तो है, इस तरह में पी सी सरकार को जादूगर नहीं मानता।
दूसरे दिन जब सभी पूजा के लिए तैयार उठे तो देखा कि उस गणेश की मूर्तियों के चारों तरफ पुजारियों ने एक घेरा बना लिया था और उसकी सुरक्षा कर रहे थे। यह सब रात में हुआ था उसमें से एक ने कहा यह मूर्तियां एक बच्चे के खेलने के लिए बनाया है और इसकी पूजा नहीं हो सकती है उन्होंने अपने रहने की जगह एक शौचालय भी बनाया था जिसका गंदा पानी मूर्तियों की ओर कर दिया था । इस शैतानी से हलदर को बहुत दुख हुआ और वे रोते रहे, रात भर सो नहीं सके। प्रातः स्वप्न में महालक्ष्मी एक हाथी पर सवार आते हुए दिखाई दी और उनके हाथ में एक चार इंच की कांस्य की विष्णु की मूर्ति थी, उन्होंने कहा जहां कहीं भी यह मूर्ति तुम को मिलेगी वहां ३३ कोटि देवी देवता रहते हैं जो जाग जाएंगे यह जगह भी उनमें से एक होगी। देवी लक्ष्मी के आसपास वहाँ कुछ, आठ से नौ वर्ष के बालक थे। अचानक बाबा की निद्रा भंग हो गई और सुंदर स्वप्न पर विचार करते करते सवेरा हो गया।
सवेरे बाबा मार्कंडेय ने एक प्रस्ताव दिया कि वशिष्ठ आश्रम से तीन मील की दूरी पर पहाड़ियों में अर्धचन्द्राकार झील है, जहां आज घूमने के लिए पहाड़ी की ओर चलना हैं। । जो वर्ष भर पानी से भरा रहता है और यह जंगली हाथियों को सर्वाधिक प्रिय है, इसलिए बाबा मार्कंडेय ने इसको ‘हातिलोतन’ नाम दिया। उस समय, वशिष्ठ आश्रम से नदी के किनारे में घना जंगल था । वे जंगल के बीच में पग डंडी से गए और 'ब्रह्मा आसन' की जगह पर पहुंच कर एक विशाल शिला पर बैठ गये। बाबा मार्कंडेय ने अपने भांग का चुरूट जलाया बाबा भांग पीना नहीं जानते थे और यह एक देखने लायक दृश्य था, वे भांग का नशा भी नहीं करते थे, परंतु कभी-कभी पीने का मजा लेते थे । तभी एक सत्रह वर्षीय युवा जिसके हाथ में चांदी की बांसुरी और कमर में एक कुल्हाड़ी बंधी थी, वर्तमान 'कृष्णा आसन' की ओर से घने जंगल से प्रकट होकर उनके पास पहुंचा। वे भी बाबा के साथ भांग पीने का आनंद लेने लगा । उसने अपना नाम कृष्णकांत बताया और कहा यह देव भूमि है जहाँ हर एक शिला एक देवता का स्थान है । प्राचीन काल में यह मुनियों की तपोभूमि थी । उसने एक स्वप्न की तरह देवी पञ्च कुमारी के स्थान का परिचय करवाया । बाबा जिस जगह पर बैठे हैं वहां एक देवालय था इस जंगल के बीच पंच कुमारी का मंदिर था, संध्या के समय यदि कोई श्रद्धा से केले का पत्ता रखकर अन्नपूर्णा देवी के सामने बैठे तो वे खिचड़ी का प्रसाद प्रदान करती थी। अन्नपूर्णा कुमारी रूप यहां पर है और उनके पालक रुद्रदेव और उनके चारों ओर ३३ कोटि देवी देवता हैं । फिर उसने (कृष्णकांत ) जंगल के रास्ते देवी महामाया के स्थान का परिचय कराकर किसी बहाने जंगल में लुप्त हो गया । लौटने पर बाबा मार्कन्डेय गहरी निद्रा मे सो रहे थे । तभी वहां पर छह से सात युवा बालक नदी में मछली पकड़ रहे थे, यह बड़े आश्चर्य की बात थी इस घने जंगल में जानवरों के बीच उनका आना । तभी एक बालक आनंद से चिल्लाया और पानी के अन्दर से किसी वस्तु को लेकर बाहर आया । जब बाबा भृगु गिरि पास गए तो यह कुछ और नहीं वही स्वप्न की भगवान विष्णु की कांस्य मूर्ति थी । उसके पश्चात वह बालक अपने साथियों के साथ घर जाने के बहाने जंगल में लुप्त हो गये ।
तभी बाबा मार्कंडेय ने पीछे से पुकारा और हातिलोतन चलने को कहा । हलधर वहां से उठकर गुरु बाबा के साथ जंगल की ओर आगे बढ़ने लगे जैसे ही वे दूर जा पर्वत के पश्चिम की ओर जा रहे थे उन्हें कुछ किले के अवशेष मिले हलधर ने सोचा शायद यह भास्कर बर्मन के समय के हैं परंतु ईंट चौड़े और बड़े थे जो १४-१५ सदी के ईटों से अलग थे। गुरु बाबा ने इन खंडहरों को किले का हिस्सा बताकर बताना आरंभ किया। चित्राअंचल पहाड़ी जहां नवग्रह मंदिर स्थित है से उनको ये पहाड़ियां और नरकासुर किले के अवशेष देखने को मिलते हैं। पहला किला आज के चांदमारी आश्रम से होते हुए बेलताला बाजार से होते हुए भूतिया पहाड़ से बरकापारा होते हुए हाथी पहाड़ तक जाते थे। इस जगह अभी कॉमर्स कॉलेज है यहां पर पहले एक बड़ा झील होता था जिसमें युद्धपोत रखे जाते थे। यह झील राजकुमारी कमला कुमारी सागर के नाम से जाना जाता था यहां पर आज इंजीनियरिंग कॉलेज है यहां पहले कई लोग रहते थे। यह चित्रांचल से रेलवे लाइन तक था । एक समय बोंडा, नूनमाटी, सातगांव और चांदीपुर पानी के नीचे थे। दूसरा किला वशिष्ठ पहाड़ी से आरंभ होकर खासिया पहाड़ी तक था , इन दोनों के मध्य में भारालू नदी था। तीसरा किला भाँगाघोर से होते हुए नरकासुर पहाड़ी से बशिस्थ होते हुए दुर्जय पर्वत पर शेष होता है।
वे बातें करते हुए उन अवशेषों को छोड़कर अर्धचंद्राकार झील के पास पहुंचे जहां से हाथी की सुगंध आती थी। भृगु गिरि अपने विचारो में ही मग्न चल रहे थे कि एक हाथी के चिंघाड़ ने उन्हें सचेत किया । वे एक हाथी के झुण्ड के पास पुहुँच गए थे । बाबा मार्कंडेय ने हाथियों से न डरने को और उन्ही के सामान सरल मन के होने को कहा । हमारे दिल देवताओं की तरह शुद्ध और सरल हो जाये तो हम उनके पास पहुँच सकते हैं और वे हमें स्वीकार करते है । यदि हम प्रकृति के सभी प्राणियों को स्वीकार कर अपना समझते हैं तब हम उनके साथ विलय हो सकते हैं । यदि कोई भय और ईर्ष्या का त्याग कर सकते हैं तो संसार के सभी प्राणी उनके बंधु बनकर उनकी तरफ आकर्षित होते हैं । यदि एक व्यक्ति अपने मन से अशुद्ध विचार का त्याग नहीं कर सकते, तब तक वे दूसरों में इस तरह के मन बनाने की अपेक्षा नहीं कर सकते । बुद्धि का त्याग और स्वाभाविक प्रवृत्ति को पुनर्स्थापित करके हम प्रकृति के साथ विलय हो सकते हैं । जो भय और ईर्ष्या को त्याग देता है वह प्रकृति के साथ मिल जाता है और उसका कोई दुश्मन नहीं होता और तब वह देवी-देवता और अन्य प्राणियों के साथ संवाद कर सकते हैं । शुद्ध मन से ही सृष्टि हो सकती है । तुम भी अपने भय को त्याग कर इच्छाशक्ति को जगाओ । बाबा के दिव्य वचनों को सुनते सुनते वे झील के किनारे पर पहुंच गए। झील के पास जंगली हाथियों के सैकड़ों पैरों के निशान थे । क्षेत्र कर्दममय था, और जंगली हाथियों की तीव्र सुगंध वायु में भरी थी । बाबाजी (मार्कंडेय) ने पास के पेड़ पर चढ़ने को कहा जिससे पास के हाथियों के झुंड को देखने में सुविधा होगी । उन्हें केवल दो घंटे का समय था इस अवधि में वे वहां शांतिपूर्ण ढंग से रह सकते थे । पेड़ से दूर पर होथियो के झुण्ड आपस में व्यस्त दिखाई दे रहे थे । हाथियों को भगवान गणेश का रूप मानकर भृगु गिरि ने उन्हें प्रणाम कर वृक्ष से नीचे उतर आये । बाबा ने कहा यही हथिलोतन है गणेश की भूमि । इस जल को पीकर हाथी परमानन्द का अनुभव करते हैं । उस झील को दिखाकर उसका नाम मार्कन्डेय झील बताया और जो इस जल मे स्नान करता या पीता है वह गणेश के समान बुद्धिमान और आयुरवान हो जाता है । उन्होंने हलधर को भी उस जल का पान करने को कहा ओर भगवान गणेश की तरह बुद्धिमान, सरल और आयुवान होने का आशीर्वाद दिया । बाबा ने बताया एक समय इस झील के किनारे इन औषधिक वनस्पतियों को खाकर उन्होंने हजारो वर्ष व्यतीत किए और मार्कंडेय हुए । आज यदि तुम निर्भय होकर जंगल से कोई फल लाकर दोगे तो मैं अति प्रसन्न हो जाऊंगा और मेरी अतीत की स्मृतियां ताजी हो जाएगी । निर्भयता से काल भी दूर रहता है ।
बाबा के प्रज्ञान मय वचनों को सुनकर भृगु जी का ह्रदय परमानंद में डूब गया, और उनकी आंखे बंद हो गयी । जैसे ही उन्होंने आँखें खोली, बाबा को पच्चीस से तीस फुट सामने खड़े देखकर आश्चर्य से रोंगटे खड़े हो गए । उन्होंने दंडवत होकर अपने को गुरु के चरणों में समर्पित किया । बाबा ने कहा - डरो नहीं, यही मेरा वस्त्विक मूल रूप है । अतीत में मैं इस रूप में विश्व में घूमा करता था । मैं ही गुप्तेश्वर मृत्युंजय , त्रिकाल पति मार्कंडेय हूँ जिसने भूत भविष्य और वर्तमान पर विजय प्राप्त कर ली है ।
मैं इस पृथ्वी पर रूप बदलकर घूमता हूं जिससे मुझे कोई पहचान ना सके मैं तुम्हारे पास आया हूं यह एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए क्योंकि तुम ऐसे मुझे पहचान नहीं सकते हो जब तक मेरा शरीर इस दुनिया में है , तुम इस बात को गुप्त रखना। एक बार तुम जब हिमालय में घूम रहे थे, मैंने नंद गिरी बाबा का रूप लिया था और तुम्हें आश्रम दिखाकर तुम्हारा पथ प्रदर्शन किया था। मैंने यह तुम्हारे आध्यात्मिक गुरु को तुम्हारा पथ दिखाकर तुमको उनको वापस कर दिया था। वह तुम्हारे साथ मेरा पहली भेंट थी । इस संसार में तुमने बचपन में कृष्ण के साथ खेला था अपनी आत्मा को पहचानो जो आत्मज्ञान है । जो स्वयं को जान सकता है वे आत्मज्ञानी है । इस दिव्य भूमि में महा विष्णु निरंजन ने भगवान गणेश का रूप लिया था तुम भी भगवान विष्णु का रूप लोगे। भृगु ऋषि की आत्मा तुम्हारे अंदर प्रवेश कर तुम भी इस जगत का कल्याण करोगे।
द्वापर युग के अंत में अग्नि ऋषि भृगु ने भगवान विष्णु की छाती में लात मारकर उन्हें जगाया था । भगवान विष्णु ने शांत भाव से उठकर प्रेमपूर्वक ऋषि से उनके पैरों को दबाते हुए बोले ; हे प्रभु मेरी पत्थर के सामान छाती से आपके कमल जैसे नरम पैरों को निश्चय ही कष्ट पहुंचा होगा । देवी लक्ष्मी, जो भगवान विष्णु के पास सो रही थी, अपने पति और गुरु का अपमान सहन न कर सकी । वे ऋषि को संबोधित कर बोली , मेरे पति तुम्हें क्षमा कर सकते हैं, लेकिन मैं इस अपमान को सहन नहीं कर सकती। आप को दंडित करने के पश्चात् ही मैं शांत हो सकती हूँ । भृगु महर्षि पश्चाताप में दोनों के पैरों पर गिरकर क्षमा याचना की। उन्होंने भगवान विष्णु से पूछा कि वे इस पाप का पश्चाताप कैसे कर सकते है। भगवान विष्णु ने कहा, "इस स्थान से उत्तर पश्चिम की ओर हिमालय की तरफ एक मृग चर्म आसन लेकर चलते जाओ । जहां कहीं भी वह मृग चर्म हाथो से गिर जाये वहाँ तपस्या करना आरंभ कर दीजिये । समय ही आपको इस पाप से मुक्ति देगा ।
भगवान विष्णु से आशीर्वाद लेकर भृगु देव अपने स्थान लौट आये । अपने योग शक्तियों का उपयोग करते हुए वह एक 'महाविद्या' जिसके उपयोग से वे पूरे देवी देवताओं की जन्म कुंडलियों को एक सूत्र में बांध दिया । इस बंधन के प्रभाव से देवी-देवता जिस ज्ञान से सभी प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करते थे, खो दिया । और इस शक्ति के लिए खुद को प्रस्तुत किया यही भृगु संहिता है । दूसरी ओर 'योगीराज कृष्णदेव ने अपने शरीर को छोड़ दिया, जो द्वापर युग अंत था । इस तरह से 'ऋषि श्रेष्ठ भृगु देव, देवी -देवताओं को योग शक्ति से निष्क्रिय करने के पश्चात अपनी तपोभूमि की खोज में हिमालय की ओर निकल गए । उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में ऋषि के हाथ से मृग चर्म आसन गिर गया और उन्होंने वहीं तपस्या आरंभ कर दी ।
वह महा-अमावस्या योगमाया का दिन था। योगमाया कृष्ण, माया या महाकाली है, और उसके नाम से जाना जाता 'कृष्ण'। कलि काल महाकाली से नियंत्रित होता है। उनका दिन महा-अमावस्या है, और समय दोपहर में बारह बजे । इस दिन अतीत में सिद्धि दाता भगवान गणेश की गोद में बैठे, त्रेता द्वापर युग में मै आपका पौत्र मार्कंडेय और आप मेरे दादा भृगु थे । आप मेरे गुरु और मैं अपका शिष्य था, आपने मुझे आत्म ज्ञान की शिक्षा दी थी । आपके आशीर्वाद और परामर्श से तुंगभद्रा नदी के तट पर करौदा वृक्ष के नीचे बैठ कर त्रिकाल विजेता अमर हो गए और, मृत्युंजय मंत्र सीखा । आज वही 'महाविद्या' मैं तुम्हें दूंगा और आप काल पर विजय प्राप्त कर सकेंगे। मैं महा गुप्तेश्वर हूँ, तुम्हें भी बारह वर्ष तक छद्म वेश में रहना पड़ेगा। बारह वर्ष किसी को भी इस बात को व्यक्त नहीं करना । पूरी अवधि के लिए साधना को रहस्य के रूप में रखना पड़ेगा । लोगों को न तो आप और न ही अपने साधना के बारे में प्रदर्शन का पता चलना चाहिए । वर्ष १९८० इस महीने में अब से (१९६९ ) बारह साल बाद इस दिन पर एक पूर्ण सूर्यग्रहण की घोषणा से विश्व में हलचल पैदा करेगा । यह अराजकता प्रतिध्वनित होगा और इंसानों में डर पैदा हो जाएगा। इस दिन आपके पूर्व रूप महर्षि भृगु पांच हजार अस्सी साल तपस्या पूरा कर अपने पूर्व स्थान क्षोभाक पर्वत पर लौटेंगे । उनके आगमन से उनका विशाल लिंग शरीर सूर्य भगवान को ढक कर आसमान में त्रास पैदा कर देगा । पूरा गृह अन्धकार मय हो जायेगा । सूरज से किरणों, उनके नीले रंग के लिंग शरीर पर गिरने से एक नीले रंग का प्रकाश प्रतिबिंबित होकर कुछ समय के लिए पृथ्वी नीले रंग की दिखाई देगी । मानव बुद्धि इस घटना को अनुभव करने में सक्षम नहीं होगा। इस कारण से, ज्योतिषी एक महान आपदा के आने की भविष्यवाणी और मानव मन में भय उत्पन्न करेंगे । सूर्यग्रहण के इस दिव्य दिन में आप एक यज्ञ करना और महर्षि भृगु की आत्मा का स्वागत करना । अगले दिन पर आप अकाल बोधन देवी यज्ञ करना । द्वापर में देवी -देवताओं की शक्तियों को बंधन में डाल दिया था । उसी शक्ति का उपयोग कर आप उन्हें मुक्त कर कली युग में परिवर्तन लाना होगा । कैसे पूजा करना होगा वह खुद ही आपको पता चल जायेगा । इस यज्ञ का उद्देश्य देव शक्ति को बंधन मुक्त करना है जो पांच हजार अस्सी वर्ष तक सभी प्राणियों को नियंत्रित करते हैं । आज आपने क्षोभक पर्वत में पंच कुमारी के स्थान को देखा है । अतीत में जहां पञ्च देवी के दर्शन हुए थे वहीं देवी देवता समस्त प्राणियों के जीवन को नियंत्रित करते थे । महामुनि भृगु का मुख्य स्थान भी यहाँ है । इस पवित्र स्थान क्षोभक पर देवी -देवता जो सभी के भाग्य का निर्णय करते थे, उनका राज्य था । आप को अपने जीवन का भी इस स्थान पर ही अंत करना होगा । बारह वर्ष के बाद जब तुम यहां रहने लगोगे अपनी पहचान दुनिया से करवाना । भविष्य में अपने कर्तव्यों का पालन, ज्ञान प्राप्त, काल पर विजय पाना यही मेरी इच्छा है । वर्ष १९८१-८२ पुन: यह दिन लौटेगा, समय से, सभी ज्ञात होगा । मैं भक्ति के साथ गुरुदेव के दिव्य वचनों में लीन होकर और उनके कमल चरणों पर गिर पड़ा। जब मैंने सिर उठाया तो बाबा को एक गंभीर मुद्रा में बैठे पाया । 'बाबा-परम आराध्य बाबा' ने कहा, अब यहाँ से प्रस्थान का समय हो गया है, हमने यथेष्ट समय व्यतीत किया है । घड़ी मे दो बजे थे सुदूर जंगल में हाथियों के झुंड में अशांति और हलचल से वातावरण गंभीर हो गया था । वे वापस झील की तरफ आने के लिए बेचैन हो रहे थे। मैं जंगल के बीच बाबा के पीछे एक सीधे पथ से नीचे उतर आया ।
थोड़ी ही देर में हम पहाड़ी को पार कर नदी के किनारे तक पहुँच गए । मैं नदी के तट पर एक रुद्राक्ष के वृक्ष को देखा और नीचे जाकर रुद्राक्ष की खोज शुरू कर दी। तभी विपरीत पहाड़ी से, हमें एक तीखी सीटी आकाश में गूंजती सुनाई दी । बाबा ने कहा, "जवाब दो शर्माजी कोई हमको सीटी बजा रहा है।" मैंने भी सीटी से उत्तर दिया । थोड़ी देर के बाद, एक मध्यम आयु का आदमी हमारी ओर पहाड़ी की चोटी से आया । उनकी विशेषताएं एक उत्तर भारत की पहाड़ी आदमी की तरह था । उनका नाम पूछने पर उन्होंने विष्णु शर्मा बताया और अपने बारे में कोई जानकारी देने से इन्कार कर दिया । विष्णु मेरे पास आया और मुस्कुराकर धीरे से बोला "मुझे अभी जो चार मुख का रुद्राक्ष मिला कृपया दे दीजिए । इसके बदले में मैं तुम्हें एक नया पवित्र स्थान दिखाउंगा । जब मैंने बाबा को देखा, तो वे पाइप से धूम्रपान में व्यस्त थे और धुएं को देखने में तल्लीन थे । मैंने विष्णु को वह चार मुखी रुद्राक्ष दिया और उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया । उन्होंने मुझे नदी के दूसरे किनारे पर पहाड़ी पर ले गए । हम पहाड़ी के शीर्ष पर पहुंच गये । चोटी से थोड़ी नीचे हम एक विशाल गुफा के पास रुके । गुफा के आकार से मैं चकित रह गया । मैंने हिमालय में कई गुफाओं को देखा है, लेकिन कभी इतना बड़ा नहीं । गुफा अद्वितीय था एक दो कमरों वाले घर के सामान, प्रत्येक कमरे में लगभग पचास साठ लोगों को बैठ कर ध्यान करने का स्थान था । चूंकि गुफा प्रवेश स्तर से पाँच फुट नीचे था , गुफा में सीधे प्रवेश नहीं किया जा सकता। इसके बाद उन्होंने पास के एक और विशाल गुफा के लिए हमें ले गए । वहाँ गहरा अंधेरा था और हमें कुछ बांस जला कर अन्दर प्रवेश करना पड़ा । अंदर, से गुफा बहुत, विशाल आकार का था , लेकिन गुफा में कुछ छिद्र थे । कई बड़े पत्थर गुफा को अवरुद्ध कर रहे थे । गुफा के ऊपर एक विशाल बरगद का पेड़ था, जिसकी जड़ें कई स्थानों पर गुफा की छत से अन्दर प्रवेश कर गई थी । हम गुफा के थोड़े ऊपर आए तो देखा एक प्राकृतिक पुल की आकृति की संरचना जो दो पहाड़ियों को जोड़ रहा था । उसके पास वहाँ एक बड़ी शिला थी । पुल के नीचे एक लंबी, गहरी सुरंग थी । हमने वहां प्रवेश किया, तब विष्णु ने पहली गुफा के महत्व का वर्णन किया। यह सिद्धाश्रम है जहां भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार प्रसिद्ध विश्वामित्र ऋषि ने सत्य की स्थापना और मानवता के कल्याण के लिए गहरी तपस्या की थी । यह वामन अवतार की तपस्या का स्थान भी था । एक बार, दानव राजा बलि ने देवताओं का राज्य और तीनों लोकों को भय से व्याप्त कर दिया । तब देवताओं और ऋषियों ने भगवान वामन की शरण ली । वामन ऋषि बलि के पास गए और तीन पग भूमि मांगी । अपनी योगमाया से उन्होंने दो पग में पृथ्वी और आकाश को ले लिया, और तीसरे पग का स्थान माँगा । उन्हें भगवान विष्णु का अवतार जानकर महान राजा बलि ने तीसरे पग के लिए अपना सिर पेश किया । धरती मां और देवताओं को राजा बली के अत्याचारों से मुक्त कर दिया । क्योंकि इस पवित्र कार्य का संचालन यहाँ से हुआ और ऋषियों को मोक्ष प्राप्त हुआ देवताओं ने इसका नाम 'सिद्धाश्रम' दिया । भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार के रूप में क्षत्रिय राजा विश्वामित्र ने सत्य और बलिदान की अवधारणा को स्थापित करने के लिए दुनिया में जन्म लिया । वशिष्ठ मुनि के साथ युद्ध में अपनी हार को स्वीकार करते हुए और ब्रह्म ऋषि होने के लिए विश्वामित्र ने इस दिव्य भूमि पर तपस्या कर मोक्ष प्राप्त किया। यह आश्रम सिद्धाश्रम के रूप में जाना जाता है, प्रसिद्ध वामन भगवान ऋषि ने यहाँ पुण्य कार्य किया । मैं उनको नमन करता हूँ ।
“एष पुर्वश्रमो राम वामनस्य महात्मनः । सिद्धाश्रम इति ख्यात सिद्धो यत्र महायास: । ।
तेनैव पूर्वाध्युषित आश्रमः पुण्य कर्मणा । मयापि भकत्या तस्येव वामनस्य निषेव्यते । । ”
'गायत्री मंत्र' और योग शक्तियों का उपयोग कर राजा त्रिशंकु को शरीर और आत्मा के साथ स्वर्ग में भेजा था । राजा त्रिशंकु को स्वर्ग से निर्वासित किया था । राजा त्रिशंकु के निर्वासन के पश्चात विश्वामित्र मुनि ने 'भारतवर्ष' के चरम सीमा पर जम्बु द्वीप का दक्षिणी प्रांत बनाया । यह नया ब्रह्मांड, भु: भूवर स्वः के रूप में जाना जायेगा । श्री वशिष्ठ मुनि ने ऐसे काम करने से उन्हें रोका था । पाली भाषा में कालिदास संस्कृत के प्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम' में त्रिशंकु के इस प्रयास का संदर्भ मिलता है “भो तिसंक वि अ अंतारा चिठ्ठ” । मुनि विश्वामित्र सिद्धाश्रम के इस पवित्र स्थान में बैठकर मानवता के कल्याण के लिए असंख्य आविष्कार किये । उन्होंने यहीं पर जगत गुरु वशिष्ठ मुनि की पदवी ली, और भगवान राम और लक्ष्मण को विद्यार्थियों के रूप में मंत्रों की शिक्षा दी । उन्होंने सत्य के विध्वंसकों का नाश किया और राक्षसों के भय से तीनों लोकों को मुक्त किया । प्राकृतिक पुल की इस तरह संरचना के आगे, दो "पहाड़ियों के बीच एक लंबी मूर्ति सुन्द और उपसुन्द के बेटे दानव सुबाहू की है जो वैदिक धर्म और यज्ञ का एक बड़ा शत्रु था । मारीच को भी सर्वोच्च धनुर्धर भगवान राम ने लंका भेज दिया जब वह मुनि विश्वामित्र की यज्ञ शाला को निशुद्ध करता था । विष्णु ने बाबा का आशीर्वाद लेकर किसी काम के बहाने पहाड़ी के ऊपर चला गया । बाद में, बाबा के निर्देशन से हमने गुफा के तल में चार से पांच फीट गहरा गड्ढा खोदा लोगों को रहने के लिए । पहाड़ से गुफा तक जाने के लिए सीढ़ी बनाई । पूजा और होम, ऋषियों और भगवान रामचंद्र के सम्मान में किया गया। लेकिन, कुछ ही महीनों के बाद साधु का निधन हो गया। आज कई लोग अपनी तीर्थ यात्रा के लिए इन गुफाओं पर आते हैं । भविष्य में सिद्धाश्रम के सुधार के लिए बहुत काम किया जाना है। लोगों को विश्मामित्र ऋषि के संदेशों को पालन करना चाहिए।
इस तरह गुरु बाबा से मिलकर उनकी बातें सुनकर हलधर पूजा पाठ में विश्वास करना आरंभ कर दिया पहले वे केवल गायत्री जप और गीता सुबह-शाम पढ़ते थे वह शिवलिंग घर लाकर उनकी पूजा आरंभ कर दी धीरे धीरे यह पूजा और तीव्र हो गई कभी-कभी पूजा शाम को आरंभ होकर सारी रात चलती और कभी तो सुबह तक चलती रहती पड़ोस के लोग आकर गुरु बाबा के शिष्य साथ में भजन कीर्तन गाते जिस समय में पूजा करते थे हलधर उपवास रखकर पूजा करते और दूसरे दिन प्रातः ही भोजन ग्रहण करते थे उनकी पत्नी शिष्य और साथी मां मनोरमा हमेशा उनका साथ देते थे, और कभी भी उनके कार्य में बाधा नहीं डालते थे वह उनके दुख-सुख में सम्मिलित होती थी, और एक आदर्श अर्द्धांगिनी की तरह रहती थी, जैसा शास्त्रों में लिखा गया है मां मनोरमा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी, परंतु उनको अंतर्ज्ञान था, वे जो भी परामर्श देती थी वे सत्य और अर्थपूर्ण होते थे वह सभी की समस्याओं का समाधान करते थे और उनको मां संतोषी की तरह देखा जाता था
हलधर ने क्षोभक पर्वत को गुरु बाबा के आदेश अनुसार साफ़ किया और कभी भी किसी वित्तीय समस्या में नहीं पड़े वे असीम संपत्ति के मालिक हुए। एक दिन गुरु बाबा मारकंडे उनसे बोले शर्मा जी मैं कभी भी ऐसे आदमी के साथ नहीं रहना चाहता जो दूसरे के अधीन काम करते हैं। हलदर ने तुरंत अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने फिर एक होम्योपैथिक दवाखाना खोल कर अपनी जीविका को चलाना आरंभ कर दिया सेना का अस्पताल और अन्य दुकानें भी बनी। हलदर सरकार को जमीन बांटने में सहायता किया करते थे। उन्होंने एक छोटा सा होम्योपैथी फार्मेसी भी खोला वे दो से तीन घंटे तक मरीजों को देखते थे, और दवाई बनाते थे वे अपने कार्य को समाज सेवा के लिए करते थे, और उन्हें जो भी मिलता था उसे अपनी गृहस्थी चलाने के लिए करते थे हलदर अब पहले जैसे कभी भी संपन्नता का जीवन व्यतीत नहीं कर सकते थे
उन्होंने पंचकन्या का मंदिर निर्माण आरंभ किया अपने सीमित साधन से ही सबसे पहले उन्होंने अपने छोटे से जमीन को बेचा उन्हें वशिष्ट मंदिर के अंदर जाने का रास्ता बनाना था जिसके लिए उन्हें २००० ईटों की जरूरत थी। पीछे की तरफ एक बड़ी चट्टान थी जहां आज कृष्ण मंदिर है उन्होंने उसको तोड़कर रास्ता बनाने का सोचा उन्होंने उस से बचे हुए पत्थर से धर्मशाला बनाना भी सोचा था। उनका एक पांच मंजिल की धर्मशाला मंदिर के साथ जोड़कर बनाने की इच्छा थी। उन्होंने इसके लिए समय व्यर्थ ना करके अपने साथियों के साथ मिलकर ब्लास्टिंग का कार्य आरंभ कर दिया उसी समय बालकृष्ण ने स्वप्न में उन्हें दर्शन देकर कहा तुमने मेरे गौशाला को तोड़ दिया है यदि यह और कोई होता तो मैं उसे इसी डायनामाइट से उड़ा देता तुम क्योंकि मेरे ही एक स्वरूप हो फिर भी मैं कभी भी इस मंदिर का निर्माण पूरा नहीं होने दूंगा तुमने मेरी गौशाला को तोड़ा है जिसके लिए मैं तुम्हें कभी भी माफ नहीं करूंगा, तुम्हारा परिवार हमेशा गरीब होगा, और इसके लिए तुम्हें भोगना पड़ेगा हलधर बोले मैंने कृष्ण की गौशाला को कभी भी नहीं पहचाना था, जो आज मुझे पता चला वे कार्य आरंभ होने के पहले मालूम होने से अच्छा होता, उन्होंने गुस्से में कहा कृष्ण यह तुम्हारी आदत है कि दूसरों की गलती बता कर उनको दंडित करना तुम्हें मुझे दंड देने का कोई अधिकार नहीं है। यह कहकर वे नींद से उठ गए इस तरह नींद टूटने के पश्चात भी वे लड़ते रहे । कृष्ण तुम भी अपनी गलती की सजा सोचो हलदर बोले काफी समय के पश्चात कृष्ण हंस कर बोले कृष्ण को कोई भी हरा सकता है क्या और अधिक क्रोध अच्छा नहीं है हलधर बोले सुनो कृष्ण मै बलराम हूं और तुमने अपने जीवन में बहुत गलतियां की है, जो तुमने मेरे सामने स्वीकारा है कृष्ण बोले छोटे भाई को अपने बड़े भाई से बचने का उपाय हमेशा होता है। यह सब सुनकर गुरु बाबा नींद से उठ गए और बोले अपनी आत्मा को जानना ही आत्म ज्ञान है तुम अपने अतीत वर्तमान को जान रहे हो यह तुम्हारा अचेतन ज्ञान दे रहा है। चेतन मन से भी हरिहर को जानने की कोशिश करो तुम अपने वर्तमान भूत और भविष्य को जान सकोगे
उनका ५ मंजिल का मंदिर बनाने का स्वप्न कभी पूरा नहीं हो सका केवल १ मंजिल मंदिर उन्होंने अपने पैतृक संपत्ति से जो ३ बीघा जमीन बेचने से हो सका धर्मशाला १९८८ में पूरा हुआ किंतु मंदिर कभी भी ५ मंजिल का ना हो सका उन्होंने देवी मंदिर के पीछे स्थित गुफा को खोदा और वहां कई दिनों तक ध्यान करते रहे हलधर मंदिर में दुर्गा पूजा करना चाहते थे ९ दिन के लिए।
उन्होंने बाजार से कुछ टीन के सीट लाकर और यज्ञशाला का निर्माण किया मां मनोरमा अपने पति के साथ यज्ञ के भोग बनाने में सहयोग करती थी और दूसरे भक्तों के साथ शाम को जल्दी घर लौट जाती थी। दुर्गा पूजा के पहले दिन उन्होंने प्रतिपदा के दिन मा मनोरमा के साथ उपवास तोड़ने के लिए बैठे तभी उन्होंने किसी को जंगल तोड़ने के लिए आवाज सुनाई दी बाहर आकर देखा तो एक बड़ा हाथी आम के पेड़ की लकड़ियों को तोड़कर खा रहा था। जो यज्ञ के लिए एकत्र की गई थी, हाथी ने सभी लकड़ियों (३ क्विंटल ) को गन्ने की तरह चबा कर खा लिया उसके पश्चात उसने हलदर द्वारा लिखे सभी पुस्तकों को जिसमें मंत्र लिखे हैं खा लिया हलदर के साथियों ने कहा चलो कुछ कपड़े जलाकर हाथियों को भगा दें। हलदर ने कहा यज्ञ तो देवताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है यदि गजेंद्र को इसमें संतोष है हमारा उद्देश्य पूरा हो जाएगा हम यज्ञ जिस तरह होगा करेंगे सभी बाबा की बातों को सुनकर सहमत हो गए और उसे प्रसन्नता से देखते रहे ।
दूसरे दिन जब बाबा हल्दर उठे उन्होंने देखा मंत्र की वह पुस्तकें वैसी ही रखी थी बाबा ने सोचा गजेंद्र भगवान ने मंत्रों को सिद्ध करने के लिए ही खाया था और यज्ञ का उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना अवश्य ही पूरा होगा। उसी समय दो मारवाड़ी लड़के यज्ञ सामग्री लेकर उपस्थित हुए वे ढूंढते हुए यज्ञ स्थान का पता लगाकर पहुंचे उन्होंने कहा कल जब वे फैंसी बाजार में दुकान में सो रहे थे एक आदमी ने आकर उन्हें उठाया २ बजे उन्होंने यह यज्ञ सामग्री जगह पर पहुंचाने को कहा और साथ में कुछ पैसे भी दिए इन सबसे हलदर एक बार फिर विस्मित हो गए हमें उन सामग्री को भगवान द्वारा भेजा सोच कर रख लिया और उनको धन्यवाद दिया यहां आने के लिए हलधर बाबा ने सोचा हे देवेंद्र आप महान हो इस क्षोभक के दिव्य भूमि पर आप कल्पतरु है आप के संरक्षण में कुछ भी संभव है । यज्ञ हलदर महाराज के मनोच्छा के अनुसार पूरा हुआ।
इस तरह की दिव्य घटनाएं और दिव्य हस्तक्षेप अविच्छिन्न होता रहा। एक दिन यज्ञ के पश्चात हलदर भगवान को अर्पित भोग को ग्रहण करना चाहते थे। उस समय उनका साथी कहीं गया था। हलधर भोग लाने गए उन्होंने देखा कि हाथी ने आकर भोग खा लिया था। यह उनका दिव्य संदेश था कि यज्ञ पूरा होने तक कुछ नहीं खाना था। इस तरह ९ दिनों तक वे कुछ न खाकर केवल पानी पीकर यज्ञ पूरा किया रात को १ बजे स्वप्न में उन्हें एक साधु हाथ में त्रिशूल लेकर उनकी ओर आते देखा। जैसे जैसे वे पास आता गया उनका शरीर बड़ा होता गया जैसे वे आसमान को छूना चाहते हैं। जैसे वे हलधर के पास आए हलधर ने उन्हें प्रणाम किया और शुद्ध कपास की तरह उनकी आत्मा हल्की हो गई एक दूसरी रोशनी साधु की आंखों से आकर हलधर की आत्मा को भी छू लिया। वे इतने विरल हो गए की आकाश में उड़ कर क्षोभक पर्वत के ऊपर उड़कर साधु तक पहुंच गए । नीचे उन्होंने मार्कंडेय झील विश्वामित्र गुफा वशिष्ट गुफा और गौतम आश्रम देखा जैसे उन्हें सब कुछ मालूम था । उन गुफाओं के अंदर उन्होंने कई आधुनिक शहर और आश्रम देखें वहां सभी लोग बहुत ही अर्वाचीन और बाल और दाढ़ी वाले दिखाई दिए कोई किसी से बातचीत नहीं कर रहा थे परंतु वे उनके कार्य मे व्यस्त थे । कई साधु गहरे ध्यान में मग्न थे एक बहुत ही सुंदर मीनार से एक साधु ने अपनी तीसरी आंख खुली हलदर ने एक ठंड का आभास किया जिसे उन्हें चंद्रमा की रोशनी ने छू लिया हो, वे अपने शरीर को महसूस करने लगे और उनका भार उन्हें अनुभव होने लगा दोनों साधु एक दूसरे से मिल गए और उन्होंने कहा यह महाकाल रुद्र देव का स्थान है तुम आज यहां मृत्युंजय हो गए हो और तुम अनिष्ट का नाश कर सकते हो, और किसी भी असंभव को संभव कर सकते हो तुम्हारी पूर्व और वर्तमान तपस्या के फलस्वरूप यह सब हुआ है। भगवती पंचकन्या की पूजा करो और उसी से तुम हमारी पूजा कर सकते हो, वही तुम्हें मुझ तक पहुंचाने का माध्यम है। आपकी साधना सफल हो उस समय तक प्रातः हो गया था और हलधर पूजा की तैयारी करने लगे। हलधर को समय मिलने पर पढ़ने का बहुत शौक था अपने घर पर उनकी लाइब्रेरी में देश-विदेश की पुस्तकें थी। एक बार गुरु बाबा बोले पुस्तक किसी के वमन का परिणाम है, यह दूसरों के ज्ञान का जैसे अनुकरण है किताबों को पढ़ने से तुम्हारी बुद्धि संकुचित होती है और आत्म ज्ञान ऊपर नहीं आता। इन किताबी ज्ञान को को निकाल फेंको। अंदर का ज्ञान ही शुद्ध ज्ञान है गुरु बाबा के शब्द तर्कसंगत थे । परंतु उन्होंने पढ़ना बंद नहीं किया दूसरे दिन उन्होंने कहा तुमने फार्मेसी खोल कर मरीजों को देखना आरंभ किया है। क्या तुम सच्चे चिकित्सक हो या झूठे, हलधर बोले उन्होंने तीन वर्षों तक एक योग्य चिकित्सक के साथ कार्य किया है उस डॉक्टर ने उन्हें चिकित्सा की अनुमति दी है उन्हें अपने कौशल और क्षमता पर विश्वास है गुरु बाबा बोले तुम अपने घर बैठकर चिकित्सा करो मरीज अच्छे डॉक्टर को ढूंढ कर उसके पास आकर इलाज कराते हैं। इसके पश्चात हलदर ने घर पर ही चिकित्सा आरंभ कर दी एक दिन गुरु बाबा बोले मैं जब भी मैं मरीजों को देखता हूं मुझे यहां से भागने की इच्छा होती है हलधर उनकी बात समझ गए और तुरंत चिकित्सा का कार्य बंद कर दिया।
दूसरे दिन श्रावण मास आरंभ हो रहा था, और गुरु बाबा ने कहा मैं पूरे महीने चावल ग्रहण नहीं करूंगा वे दूध आलू छीन ले सकते हैं या खाली पेट ही रहेंगे । उस रात हलधर बाबा फिर कृष्ण से स्वप्न मे लड़ने के कारण दूसरे दिन गायों ने दूध देना बंद कर दिया। हलधर बाबा को नहीं मालूम था कि गुरु बाबा कितना दूध या आलू लेंगे उन्होंने ५ लीटर दूध और ३ किलो आलू गुरु बाबा को दिया। गुरु बाबा ने थोड़ा दूध और पूरा ३ किलो आलू खा लिया हलदर समझ गए और दूसरे दिन से थोड़ा दूध और आलू देना आरंभ कर दिया। धीरे धीरे पैसों की तंगी आरंभ हुई हलधर को समझ में नहीं आ रहा था कैसे घर चलाएंगे और कोई नौकरी करना या कोई नया कार्य करके गुरु बाबा को अप्रसन्न नहीं करना चाहते थे । उन्होंने घर की वस्तुओं को बेचना आरंभ कर दिया यह सिलसिला मां मनोरमा के गहने बेचने तक आ गया उसके बाद उन्होंने अपनी पुस्तकों को बेचना आरंभ कर दिया। यह उन्हे अच्छा नहीं लगता था । उन्होंने एक छोटे बालक जो उनके घर पर काम करता था को उन पुस्तकों को ना दिखाकर बेचने को कहा। इसके बाद उन्हें अपने लाइफ इंश्योरेंस पॉलिसी जो ३ लाख रुपए की थी भी बेचना पड़ा, और इसके बाद उन्हें अपनी जायदाद को बेचने का समय आया और कई लोगों ने इसमें दिलचस्पी दिखाई किंतु वे इसे बेच न सके ।
दूसरे दिन एक बिहारी भक्त आया जिसे हलधर बाबा का आशीर्वाद चाहिए था जिससे वह जल्दी कुछ पैसे कमा सके लोटरी खेल कर । हलधर को यह विचार जुआ खेलना जैसा पसंद ना आया। उन्होंने कहा इस तरह पैसे कमाना ठीक नहीं है और यह उनका अंतिम दिन होगा। हलधर बाबा ने उस आदमी के लिए २ अंक चुने और बहुत पैसे कमाए। गुरु बाबा ने हलदर से कहा वे इस शक्ति का उपयोग पैसे कमाने के लिए क्यों नहीं करते इस कार्य के लिए । वे बोले मैंने जो भी कमाया था उसका क्या लाभ हुआ जब उसकी जरूरत थी मुझे अपने जीवन में विश्वास है और ज्ञान की आवश्यकता है जो मेरे साथ हमेशा रहेगा गुरु बाबा ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि माया ने अभी भी उन्हें छोड़ा नहीं है, यद्यपि वे इसको निकालने की पूरी कोशिश कर रहे हैं इसके बाद उन्होंने हलदर के सभी जमीन जायदाद के कागज को अपने पास रख लिया और सभी जायदाद को अपने नाम कर लिया इस तरह हलधर अपने सभी जायदाद के बोझ से मुक्त हो गए।
दूसरे दिन मां ने कहा घर पर एक भी पैसा नहीं है खाना पीना कैसे बनाएंगे, हलधर बोले अभी बहुत समय है परंतु वे थोड़े परेशान भी थे, उसी दिन जब सब घर पर थे गुरु बाबा भी उनके पास थे एक आदमी सायं काल गुरु बाबा से होम्योपैथी दवाई लेने आया गुरु बाबा ने उसे हलधर के पास भेज दिया हलधर को कुछ समझ ना आया कि गुरु बाबा क्या चाहते हैं क्या यह उनकी एक परीक्षा है उन्होंने गुरु बाबा की ओर देखा और इशारे में पूछा उन्हें क्या करना है गुरु बाबा समझ गए हलधर के मन में क्या चल रहा है और उन्होंने उस मरीज को इलाज करने की अनुमति दी हलदर ने वैसा ही किया और उस मरीज को दवाई दी उस दिन उनको उस मरीज से २०₹ मिले उन्होंने उस से सभी आवश्यक सामग्री घर पर लाए। दूसरे दिन से और ज्यादा मरीज आना आरंभ कर दिया। उनका घंटों पुस्तक पढ़ने का शौक भी खत्म हुआ और उनकी जायदाद ने भी उनका पीछा छोड़ा। यह उनकी जिंदगी की एक नई शुरुआत थी।
कुछ दिनों पश्चात दुर्गा पूजा आरंभ हुआ गोकुल जहां पर रहते थे हलधर और बेलतला के राजा के दूसरे पुत्र इस पूजा को करने के लिए जिम्मेवार थे। हलधर को एक और पूजा नए बाजार में शैलेंद्र पात्रा के साथ करना था । हल्दर ने पूरे १० दिन इन दोनों पूजा के लिए समय दिया मां मनोरमा दिन-रात उनका साथ दिया करती थी।
एक बार हलदर बाबा पंचकन्या पूजा के लिए सभी कुछ तैयारी के सिवाय स्वर्ण आभूषण के। मां मनोरमा हलधर से पूछे बिना अपने सोने के चेन को पिघलाकर देवी मां के आभूषण बनाने के लिए सोना कभी किसी को सुख नहीं दे सकता लेकिन यदि यह देवी के लिए उपयोग किया जाए वे अति उत्तम होगा। उन्होंने उस से ५ जोड़ी कान के बाली बनवाए यह सुनकर हलधर को एक कहानी याद आई एक बार पति पत्नी घूमने गए पत्नी बहुत भक्त और धार्मिक थी परंतु पति अपनी धार्मिकता कभी बाहर प्रकट नहीं होने देते थी । यह बात पत्नी को नहीं मालूम था सोने का मुनका पड़े देख उसने उसको अपने पैरों के नीचे दबा लिया जिससे इस पर पति की नजर ना पड़े, पर पति ने कहा तुम कीचड़ से कीचड़ को क्यों ढक रहे हो दोनों के बीच खाली इतना ही अंतर है कि जैसे चावल और धान, रेत और पत्थर एक दूसरे को ढक नहीं सकते, यह अंतर तो मन का भ्रम है । बाबा ने मां मनोरमा की उदारता देख कर अति प्रसन्न हो गए।
९ दिन दुर्गा पूजा में बाबा व्यस्त थे, कीर्तन और भजन से सारा इलाका गूंज उठता था, पूजा के बाद सभी मां मनोरमा के हाथ का भोग खाते थे। और उसके बाद घर जाते थे एक दिन सभी जाने के बाद मां मनोरमा वरांडे में गई और जोर से चीखी हलधर ने चीख सुनकर उनकी ओर दौड़े उनको गिरने से पहले उठा कर बिस्तर पर लिटाया और उनका शरीर ठंडा पड़ गया था। सांस रुक गई थी बाबा ने कुछ सोच कर उनके मुंह पर मंत्रित जल छिड़का २ मिनट के बाद वे बोल उठी देखो वह भाग रहा है और कोई उसका पीछा कर रहा है केले के पेड़ के पीछे। जब उनसे पूछा गया कौन किसका पीछा कर रहा है । तो उन्होंने कहा मृत्युंजय (भगवान शिव) उनके एक सेवक को जो एक गाड़ी पर आ रहे थे उस नींबू के पेड़ के ऊपर उनको पास नहीं आने दे रहे थे। बाबा ने पीछे के दरवाजे पर एक आवाज सुनी। बाबा ने एक आसन ले कर खिड़की से फेंका और उन्हें बैठने के लिए कहा। उन्हें तभी कस्तूरी की गंध आई जो शिव भगवान को बहुत पसंद है। मां मनोरमा फिर से शांत हो गई और ठंडी पड़ गई बाबा ने फिर से उनके ऊपर जल डाला । पीछे से आवाज आई, मैंने पीछे पड़े हुए भाँग के पाइप से कस दिया शंकर जी को । वह मुझसे गुस्सा है , मैंने अपने चेलों को भेजा उन्हे देखने के लिए। परंतु वे उन्हें गलती से ले जा रहे थे। इसलिए मैं स्वयं उनको बचाने के लिए आया हूं वह मेरी सहयोगी एक उच्च कोटि की देवी है । गोपीनाथ जी (मनोरमा देवी के पिता) ने मेरी पूजा स्वर्णिम अखरोट के पत्ते से किया था, मैंने प्रसन्न होकर एक बालिका को २० वर्ष के लिए भेजा था। परंतु आज उस की आयु समाप्त हो रही है, वह तुम्हारी माया से छोड़ कर जाना नहीं चाहती। तुम भी उसे नहीं जाने देना चाहते हो हलदर ने उनके सामने मां मनोरमा के प्राणों की प्रार्थना की। उन्होंने हंसते हुए कहा मुझे मालूम है, कि तुम मेरे ही अंश हो उसको अपने पास कुछ समय रखो । मुझे जाते समय शंकर जी ने एक और भांग की कस मांगी । जाते समय शिव भगवान बोले सभी भगवान उनकी पूजा से अति प्रसन्न हैं। मां मनोरमा उठी और कुछ देर बाद निद्रा मग्न हो गई दूसरे दिन में उठी और पूजा की तैयारी करने लगी। जब उन्होंने दूसरे दिन देखा बाबा हलधर की दाढ़ी और बाल सफेद हो गए थे । मां बोली आज मुझे तुम्हारा असली चेहरा दिखाई दे रहा है मैंने स्वप्न में तुमको पहाड़ से इस रूप में उतरते देखा था विष्णु के रूप में और तुमने सभी से बात किया । मां मनोरमा के इस कथन से बाबा हलदर कुछ भी विचलित ना होकर पूजा में लग गए।
अष्टमी के दिन संध्या समय जब पूजा चल रही थी संजय उनका ६ वर्ष का पुत्र पूजा स्थान में गया तो देखा एक शेर हलदर के पास बैठकर चरणामृत खा रहा था। वह डर गया देखकर और भय से चीख उठा। शेर पहले तो बैठा ही रहा फिर धीरे से उठा और पूजा स्थान से पीछे बैठ गया कुछ समय उपरांत वह पूजा स्थल छोड़कर जंगल चला गया। हलधर अपने घर पर मंदिर में और गुफा के अंदर ध्यान करने लगे । कभी-कभी वे काफी समय के लिए ध्यान में विलुप्त हो जाते थे परंतु वापस आने पर वे घर के कार्य में लग जाते थे।
१९७६ में गुरु बाबा ने उनसे जाने की अनुमति मांगी यह सुनकर उनको हृदय में बहुत पीड़ा हुई और आंखों में आंसू आ गए अश्रु भर आए । अश्रु भरे आंखों से उन्होंने गुरु बाबा से किसी त्रुटि के लिए क्षमा मांगी। गुरु बाबा बोले तुमने कोई भी गलती नहीं की, ना मुझे कभी भी दुख दिया उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तुम कभी भी कोई त्रुटि नहीं करोगे और हमेशा अपने पथ पर विजयी होंगे। इस दुनिया में सभी कुछ नियम और काल से बंधे हैं मैं भी उन्हीं से नियमों से बंधा हूं। तुम्हें मृत्युंजय साधना सिखाने के लिए मैंने गुरु बाबा का रूप धारण कर लिया था। किंतु जैसा ब्रह्मा भगवान का आदेश है मुझे अभी यहां से जाना होगा। माया ने हमारा यह बंधन बना था। परंतु मैं माया के वश में आ सकता हूं मोह के नहीं। तुम्हें यह मोह को त्याग देना होगा। १२ वर्ष की साधना एक युग के समान था । मैं तुम्हारे साथ ९ वर्ष था और तुम्हारा गुरु बनकर तुम्हारा मार्गदर्शन किया। बाकी ३ वर्ष तुम्हारी साधना अकेले होगी। शिव भगवान का अस्त्र त्रिशूल है जो ब्रह्मा विष्णु और महेश्वर हैं तीनों एक दूसरे से विलग नहीं है तीनों महासरस्वती महालक्ष्मी और महाकाली के छत्रछाया में रहते हैं । एक दूसरे के पूरक हैं । त्रिशूल त्रिकाल और तीन आयाम (dimension) के प्रतीक है, अतीत वर्तमान और भविष्य, तीनो एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। शिव महाकाल हैं जो तीन काल, तीन देवियों और तीन देवताओं के प्रतीक हैं और ये सब मिलकर नौ होते हैं। यह नववर्ष त्रेता द्वापर और कलि एक पथ प्रदर्शक के होते हैं। बाकी के ३ साल सतयुग। सतयुग का अर्थ है क्या था, क्या है, और क्या होगा (भूत, वर्तमान और भविष्य)। सतयुग और वर्तमान हमेशा रहेगा साधक को इस पर नियंत्रण कर मृत्युंजय बनना है इस सतयुग से मेरा कोई काम नहीं है साधक को एक शुद्ध मन से गुरु को ध्यान कर साधना करनी चाहिए तभी उसकी साधना सफल होगी। गुरु बाबा यह कहकर हलधर बाबा को उनकी साधना के लिए आशीर्वाद देकर कहा तुम आज जीत गए हो और मैं हारा। पहले ३ दिनों के लिए आकर मैं ९ वर्ष तक तुम्हारे साथ था । मुझे तुम्हारी अनुमति चाहिए जो तुम अवश्य दोगे यह सब सुनकर हलदर बोले आप मेरे इष्ट हो गुरु हो। यह सब आपकी ही इच्छा, शिक्षा और आशीर्वाद से मैं जीतने लायक हुआ हूं। आप ही मेरे इस जीत के कारण हो जब एक शिल्पी किसी मूर्ति को घटता है। तो यह उसी की खूबी है ना की मूर्ति की। यह सुनकर गुरु बाबा हंसकर बोले उनका शिष्य बहुत ही चतुर है। दूसरे दिन प्रातः गुरु बाबा ने विदा लिया और सभी के हृदय दुख से भर गए। उन्होंने अपने शिष्य से कहा कि मुझे और रुकने का लोभ नहीं दिखाना और अपनी पत्नी का ध्यान रखना। उन्होंने १९८० में संन्यास लेने के लिए कहा जब तक उनके बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे इसके बाद आप उनको दूर से ही उनका मार्गदर्शन करना विवेक निष्पक्षता और अनासक्ति भाव से वह सभी को अपना समझकर मार्गदर्शन करना । वह सभी उनके गुरु के संरक्षण में रहेंगे वे उनके घर भी जा सकते हैं यदि उनकी इच्छा हो जब वह हृदय से बुलावे बिना किसी इच्छा के। उनको किसी के प्रति मोह नहीं होनी चाहिए मां मनोरमा उनकी धार्मिक पत्नी है, और उनकी अनुमति के बिना संन्यास नहीं लेना। वह उनकी गुरु बहन और आत्मबल है जिससे इस संसार में आगे बढ़ने में सुविधा होगी। जब भी उन्हें किसी सहायता की आवश्यकता हो वह उनका साथ जरूर देंगी। इसके बाद उन्होंने उनके भूमि के कागज निकाल कर दिए, और कहा इन को वह अपनी इच्छा से उपयोग कर सकते हैं। उन्होंने कहा मेरे ९ वर्ष आदर सत्कार के बदले यह जायदाद मैं मां मनोरमा के नाम करता हूं। उन्होंने कहा मैं आज इस ऋण से मुक्त होता हूं यह आप की जायदाद है इसको अपनी इच्छा से उपयोग करना गुरु बाबा के जाने के पश्चात घर खाली हो गया। मां मनोरमा निःशब्द होकर अपने बच्चों संजय, जया और नलिनी को साथ लेकर देखते रहे। भामिनी बिस्तर पर लेटकर आकाश की ओर देखती रही । सभी ने निःशब्द होकर सारा दिन बिताया।
भृगु संहिता की स्थापना
एक परिसंवाद में, चर्चा का विषय था "ब्रह्मा, विष्णु और महेश में सहनशीलता में सर्वश्रेष्ठ कौन है?"। चर्चा में, एक सर्वसम्मत निर्णय पर न पहुंचने पर वे क्षोभक पर्वत आये और सप्तऋषि ने भृगु ऋषि से पूछा । जिन्होने तीन दिन का समय लिया और पहले ब्रह्मा के पास गये, जहां ब्रह्मा ने विभिन्न कार्यरतता दिखा कर, अलविदा कर दिया । फिर, वे महेश के पास गये, जब महेश ने भी बहाने बना कर उनके प्रस्ताव का कोई समाधान नहीं दिया । अंत में वे विष्णु के पास गये , जो "अनंत" की गोद में सो रहे थे। ऋषि ने जब विष्णु को जगाने की कोशिश की, और जगाने में विफल होकर , क्रोध में उन्होंने विष्णु की छाती पर लात मारी, लेकिन, विष्णु, सम्मान और प्यार के साथ, उठ गये और ऋषि के पैर छूए, और उन्हें हल्का दबाते हुए इस प्रकार कहना आरंभ कर दिया: हे "पिता तुल्य ! आप निश्चित रूप से मेरी चट्टान की तरह छाती में लात मार कर अपने फूल के समान नरम पैर में कष्ट का अनुभव कर रहे होंगे । इस प्रकार कहते हुए, उन्होने ऋषि के पैर दबाना आरंभ कर दिया। यह देखकर, देवी लक्ष्मी, जो पास बैठी हुई थी क्रोध के साथ उद्विग्न हो गयी और महर्षि को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा: नारायण मेरे स्वामी और गुरु है, जो गुरु का अपमान करे, उसके अंगों को काट देना चाहिए, यह शास्त्र का नियम है, परंतु आप मेरे पिता हैं, यही कारण है कि ऐसा नहीं किया जा सकता है, फिर भी, गुरु का अपमान कभी क्षमा के योग्य नहीं है । मै आपको श्राप देती हूँ, आपका कुल हमेशा दरिद्र होगा, मैं आपके कुल के किसी भी घर में प्रवेश नहीं करुगीं । महर्षि, लक्ष्मी की बातों पर कोई टिप्पणी दिये बिना वंहा से लौट आये । रात में, ज्योतिष विज्ञान की मदद से ३३ "कोटि "देवता" (सूक्ष्म सार्वभौमिक ऊर्जा) को आकर्षित किया । इस तरह एक अनुशासित सद्भाव, "संहिता" बनाया, और उस में सभी आत्माओं को परिबंध किया, यही भृगु संहिता है।
अगले दिन, वे नारायण के पास गए और कहा, "नारायण, कल मैंने आपको लात मारी थी , जो उचित नहीं है। इसका फल तो भोगना ही पड़ेगा । मेरे इस दुष्कर्म का प्रायश्चित केवल तपस्या है। नारायण बोले, निश्चित रूप से आपका कथन औचित्यपूर्ण है, आप मृगचर्म आसन लेकर हिमालय की ओर प्रस्थान करिए । जहाँ कहीं भी वह मृगचर्म गिर जाये, वहीं आपको तपस्या आरम्भ करना चाहिए, समय आपको इसकी पूर्वसूचना देंगे । गंगा नदी के तट पर, उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में मृगचर्म आसन हाथ से गिर गया, और वहीं ऋषि ने तपस्या कर शरीर से मुक्त हो गये । आज भी वह जगह "भृगु क्षेत्र" के नाम से प्रसिद्ध है।
अकाल बोधन यज्ञ
१६ फरवरी १९ ८० में पूर्ण सूर्यग्रहण की घोषणा की गई यह माघ मास की अमावस्या का दिन था। इस दिन किसी को भी घर से बाहर निकलने के लिए मना किया गया था वैज्ञानिक इस दिन कुरुक्षेत्र, इंदौर, पानीपत और उड़ीसा के सूर्य मंदिर में एकत्र होकर अध्ययन करने वाले थे । जैसा कि गुरु बाबा ने पहले ही बताया था हलधर ने क्षोभक पर्वत पर यज्ञ की तैयारी कर ली थी और भृगु महर्षि की आत्मा का आह्वान किया जिला अधिकारी इस यज्ञ की सूचना पाकर इसका विरोध करने आए। जब बाबा ने यज्ञ न करने से मना कर दिया उन्होंने कहा उन्होंने बाबा को गिरफ्तार करने की धमकी दी। तब बाबा ने हंसकर कहा यह कैसा दुर्भाग्य है कि एक स्वतंत्र भारत में किसी भारतीय को अपने मन से काम करने की अनुमति नहीं है। जिन्होंने संविधान बनाया है वे अंग्रेजों के अधीन पैदा हुए थे, इसलिए उन्होंने स्वतंत्रता को ठीक से परिभाषित नहीं किया है। उन्होंने कहा क्या हलधर आत्महत्या को वैध ठहरा रहे हैं, हलदर बोले मैं ऐसा कभी भी नहीं होने दूंगा यदि कोई गरीब दुखी आदमी रास्ते में मरने की कोशिश करे पर यदि कोई अपने शांत मन से दूसरों को हानि न पहुंचा कर मरना चाहे तो उसे क्यों रोका जाता है। बाबा भोले सभी को इस संसार में सुखी रहने दो किसी को कोई दुख न आवे यदि कोई अपने मन से स्वतंत्रता का अनुभव करना चाहे तो आप उसे कैसे रोक सकते हैं। हमारे शास्त्रों ने मनुष्य के नियमों की इतनी सावधानी से बनाया है की किसी को सम्मान से जीने में कोई रुकावट ना हो, और समाधि में जा सके । कोई कानून के बल पर स्वतंत्र नहीं कर सकता। बाबा ने आगे कहा यदि कोई सूर्य या चंद्र ग्रहण में यज्ञ कर अपने को स्वच्छ करने के लिए और अपनी बुराइयों को निकाले तो क्या यह आत्महत्या है या आत्म शुद्धि। मेेे यज्ञ अवश्य करूंगा और उसी दिन। यदि कोई इसे किसी खबर को सुनकर उस पर विश्वास करें तो यह ठीक नहीं है। पिछले २ वर्षों में इस जंगल में ना जाने कितने लोग शेर के शिकार हो गए हैं उसको रोकने के लिए तो कोई भी नहीं आया, और आज आधारहीन समाचार को सुनकर आप हमें पकड़ने आए हैं।
सूर्यग्रहण के आरंभ होने के बाद बाबा ने एक के बाद एक मंत्र पढ़ना आरंभ किया आकाश नीला पड़ गया महर्षि भृगु का लिंग शरीर ने विराट रूप धारण कर लिया और बलिया से क्षोभक पर्वत आकर हलधर बाबा के शरीर में प्रवेश किया। उसके साथ ही वे मनुष्य से अवतारी पुरुष हो गए अब वे हलधर नहीं थे अपितु महर्षि भृगु गिरी महाराज वैज्ञानिक विचारों, सृष्टि के ज्ञाता कुछ समय के लिए बाबा भृगु गिरी का शरीर स्वर्णिम आभाष से चमकने लगा जो कुछ दिनों तक धीरे धीरे कम हुआ। बाबा ने अपने गुरु के आदेश के अनुसार अकाल बोधन यज्ञ किया और उसी दिन सन्यास भी ले लिया। दूसरे दिन प्रतिपाद मे बाबा भृगु गिरि ध्यान और देवी पाठ में पूरे दिन रात तल्लीन थे। जब स्नान के पश्चात बाबा पूजा करने बैठे हजारों लोगों उन्हें देखने आए। चतुर्थी के दिन लोगों ने हाथी के चिंघाड़ की सुनी, यह इतनी तेज थी कि चारो दिशाएं गुंजायमान हो रही थी। सब तभी डरकर बाबा के पास गए। किसी ने कोई हाथी नहीं देखा परंतु आवाज़ आ रही थी। कुछ समय पश्चात सभी ने अनुभव किया की आवाज़ पृथ्वी के नीचे से आ रही थी। बाबा ने जब उस जगह को देखा तो अंदर से आवाज आ रही थी। मैं अग्रपूज्य देवेंद्र गणेश हूं यह यज्ञ आरंभ हुआ किंतु किसी ने ना मुझे आव्हान किया और ना पूजा आज से मैं घोड़े पर सवार होकर घूमूंगा क्योंकि मैं आदि गणेश हूं। सभी देवी देवता कांता नदी में स्नान कर मेरा दर्शन करते थे। यदि आज मुझे वह नहीं मिलेगा जो मुझे चाहिए मैं पूरे विश्व को हिला कर रख दूंगा। बाबा ने तब उस जगह को साफ करवाया और नीचे से ९ फुट लंबा गणेश के शिर का ऊपरी भाग बाहर आया। घी और कुमकुम उनके शरीर में लगाया और पीला वस्त्र से सजाया गया। बाबा ने नारियल फोड़ा और उनको पवित्र धागा दिया, पीला वस्त्र, गांजा और पीली माला चढ़ाया। नींद से उठ कर उन्हे (गणेश) को अत्यंत भूख लग रही थी। उन्होंने लड्डू और दूर्वा अपना भोजन मांगा। बाबा ने सभी ला कर उन्हें चढ़ाया और शाम को उनके पास त्रिशूल लाकर रख दिया।
गणेश भगवान को शांत करने के बाद क्षोभक पर्वत से दूसरी तरह की आवाजें आने लगी वहां उपस्थित लोगों ने इन शब्दों से कुछ न समझ पाए और डर कर बाबा भृगु गिरी के पास गए। बाबा ने सभी को शांत होने कहा उन्होंने कहा ३३ कोटि देवी देवता अपने आसन से जाग गए हैं और वे सब अपनी पूजा करवाना चाहते हैं। बाबा ने सभी को अपने इष्टदेव की श्रद्धा से पूजने और उनके साथ की आज्ञा दी। बाबा ने सभी देवताओं की अर्चना कर कपड़ा फूल और अगरबत्ती जलाई और उनके स्थान पर गए। बाबा ने सभी को कहा श्रद्धा से अपने इष्टदेव की आवाज सुनो जो वहां उपस्थित नहीं थे। उनके लिए यह कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं थी बाबा अपने हाथों से प्रसाद लेकर एक-एक देवता के पास गए सबसे पहले कार्तिकेयन सुब्रमण्यम भगवान जो देवताओं के सेनापति हैं और कला और सुंदरता के देवता हैं। उनके पास देवी जगद्धात्री जो कि भगवान शिव की पत्नी है शेर पर बैठी है अपने प्रिय पुत्र गुहा के साथ। इसके पश्चात वे भगवान शिव के भक्त कुबेर के पास गए यह पूजा कठिन थी । उन्हे केले के गुच्छे एक शुद्ध बर्तनों में रख कर कुबेर के पास रखा। कुबेर के पास पंच पीर का स्थान है जो क्षोभक पर्वत के रक्षक और धन के रक्षक है। उनकी आंखों से कोई बच नहीं सकता, और अपने पाप का फल भोगता ही है। वह सभी के कर्मों और इच्छाओं का हिसाब रखते हैं। इसके ऊपर शंकर पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ हैं। उनका नाम मुन्ना है। बाल गणेश को बाबा भृगु गिरी से पवित्र धागा मांगा । बाबा ने कहा मैं तुम्हें १ वर्ष पश्चात दूंगा। बाल गणेश ने बाबा को भगवान शिव और पार्वती के पास पहुंचने के पहले धक्का दिया और बाबा गिरने लगे पर उनके हाथों रखी थाली वैसी ही थी। बाल गणेश अपने बाल्यकाल से ही बहुत शक्तिशाली थे जब उन्हें धागा अर्पित किया गया वे शांत हुए इस के थोड़े ऊपर भृगु ऋषि का स्थान है। इसके ऊपर महिषासुर का शेर है जो देवी दुर्गा द्वारा काटा गया था। गंगा शिव भगवान के सिर से निकलकर कांता नदी के रूप में बहकर त्रिवेणी में संध्या और ललिता से मिलती है। नीलकंठ शिव के ऊपर अघोर हैं यह बहुत ही शक्तिशाली और शुद्ध हैं। उन्हें कोई भी नहीं छू सकता है। इसके १०० फीट ऊपर शक्ति देवी शीतला का स्थान है इसके पास पहुंचने के लिए अपनी उंगलियों पर चलना पड़ता है एक भी कदम डगमगाने से नीचे गहरी खाई में गिर पड़ते हैं। शीतला देवी को जो आम, पाइनेपल, कटहल, चावल का आटा , काला जीरा, पूरी हलवा जो शुद्ध मन से उस स्थान पर साफ कपड़े पहन कर बनाता है उसकी सभी मनोकामना पूरी हो जाती है। वहां पर जाने के कई नियम है ।
५० फीट ऊपर अमरावती है जहां देवी देवता दिन के १२ बजे मिलते हैं रोज इस स्थान पर किसी को १२ बजे शनिवार को जाने की अनुमति नहीं है । पूर्व की और उसी पर्वत पर नील सरस्वती तारा है। उनका स्थान सूर्य भगवान की नाभि है वे १० महाविद्या की दूसरी देवी है ।
पूजा पूरा होने के बाद बाबा के साथ ५०० भक्त नीचे उतरे और पूरा क्षोभक पर्वत शांत हो गया। पश्चिम दिशा में त्रिलोकीनाथ स्थित है। इसके पश्चात त्रिकाल जो भृगु गिरी के ही रूप है (अतीत वर्तमान और भविष्य) की पूजा की जाती है। इसके ऊपर देवी का वाहन गरुड़ के समान चेहरा दिखाई देता है। इस पर बैठकर देवी देवता क्षोभक पर्वत पर विरचित करते हैं ।
इसके ३०० फीट ऊपर गणेश की मूर्ति के ऊपर महाकाल भैरव का स्थान है, जो मां कांता(नदी) की गोद में हैं। काली नाथ भैरव एक बड़े शरीर वाले बाल बने हुए सुंदर चेहरे वाले लोहे के नगो की माला पहनते हैं। महाकाल की एपेल से पूजा की जाती है और एक झंडा लगाया गया, महाकाल भैरव को दूध से स्नान करने से मृत्यु से मुक्ति हो जाती है।
जब बाबा भृगु के लिए पूरी पूजा समाप्त होने के पश्चात कांता नदी में हाथ धोने आए तो उन्हें ३ फीट दूर एक रोशनी दिखाई दी और आवाज सुनाई दी जिसे भृगु गिरी सुन सकते थे। मैं महावीर हनुमान हूं सभी देवी देवताओं को स्थान मिला मेरी जगह कहां है। बाबा बोले हे देवताओं के देव वायु के देवता बालाजी आप तो समुद्र के ऊपर आकाश में हो, क्या फिर भी आपको इस स्थान की आवश्यकता है। आप किसी भी स्थान को ढूंढ सकते हैं और वही आप की पूजा होगी महावीर ने देवी के स्थान से थोड़ा ऊपर एक वृक्ष पर अपना स्थान पेड़ के जोर-जोर से हिलने से बाबा को इंगित किया। बाबा ने पेड़ के पास जाकर एक कपड़े से उन्हें बांधकर उनका स्थान निश्चित किया इसके साथ धोती शॉल लंगोट और उनको गांजा लड्डू फूल से पूजा की । इसके बाद उन्हें एक कुत्ते के भौंकने की आवाज आई और वे समझ गए कि काल भैरव उन्हें बुला रहे हैं, यह एक छोटा पत्थर नदी के बीच अखरोट के पेड़ के नीचे मिला उनकी पूजा महावीर के समान ही की गई काल भैरव काल के देवता ग्रहों को जीतने वाले और दुष्टों को दंड देने वाले हैं, उनकी पूजा करना इतना आसान नहीं है और लोगों को उन को छूना नहीं चाहिए उनका आशीर्वाद दूर से ही लेना उचित है। यदि कोई उनकी पूजा स्वच्छ मन से करता है तो वह सरलता से ही संतुष्ट हो जाते हैं और उनकी इच्छाओं को पूरा करते हैं। इसके थोड़ा ऊपर पंचकन्या का स्थान है, और उन्हीं के पास रुद्रेश्वर, हरिकेश्वर उनके पास चक्रदेव विष्णु का स्थान है. अनंत शेषनाग हरिहर के संरक्षक है रुद्रदेव क्षोभक पर्वत के अभीष्ट देवता हैं, वे भीमाशंकर हैं और यह उनका ज्योतिर्लिंग है। हरि शब्द से हेरुक बनता है, हरि तक पहुंचने के लिए हर से ही होकर जाना पड़ता है, ज्योतिर्लिंग के पीछे एक कहानी है और यह इस पर्वत से जाना जाता है।
इस तरह सभी देवी देवताओं को क्षोभक पर्वत पर जगाया गया जिन्हें द्वापर युग के अंत में भृगु ऋषि ने सुप्त अवस्था में रखा था। अकाल बोधन यज्ञ ९ दिनों तक चला इसके पश्चात बाबा ने आरती देते हुए तांडव नृत्य किया और आवाज के साथ जमीन पर गिर पड़े बाबा ने मां को अपनी गोद में लिया उनका शरीर ठंडा हो गया था और सांस रुक गई थी बाबा ध्यान में चले गए मां भगवती की और नदी के उस पार से शेर की आवाज आई कांता नदी के ऊपर उस पर से सभी ने आवाज नहीं सुनी केवल एक नीला कमल जो उस समय होता था देखा। मैं अपने गुरु की आज्ञा से अकाल बोधन यज्ञ कर रहा हूं मानवता की भलाई के लिए अपने स्वार्थ के लिए नहीं मैं मां पर मृत्युंजय मंत्र का उपयोग करुंगा और आप इसको नहीं रोकेंगे, आपकी जय जयकार होगी इस पृथ्वी पर मैं जय मां पंचकन्या की जय लोगों ने जोर से मां की जय जयकार किया और आकाश शंख ध्वनि ढोल और नगाड़ों से गुंजायमान हुआ बाबा ने मृत्युंजय मंत्र पढ़कर मां के ऊपर जल छिड़का, मां कुछ देर में उठ गई लोग स्तब्ध रह गए।
आखिरी दिन नवमी का था, पूर्णाहुति दी गई और कुमारी पूजा की गई ५००० लोग एकत्र होकर अकाल बोधन यज्ञ को सफल बनाया इसके उपरांत प्रत्यक्ष शिवरात्रि के पश्चात १५ फरवरी से १५ मार्च के बीच यह महा शिवरात्रि के पश्चात अकाल बोधन यज्ञ किया जाता है। १९८० के उपरांत बाबा भृगु गिरी ने संन्यास ले लिया मनोरमा ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई। मा मनोरमा ने अपने बच्चों को बड़ा करने की पूरी जिम्मेदारी ली और आश्रम को चलाने में हाथ बटाया उन्होंने न केवल अपने बच्चों को पढ़ाया बड़ा किया परंतु आश्रम को भी चलाया। इस तरह उन्होंने दिन रात अपना जीवन बाबा के साथ जग कल्याण के लिए लगाया कोई भी जब आश्रम में बाबा का आशीर्वाद लेने आता है मां से भी आशीर्वाद लेकर जाता है । उनके गुरु और उनके पति हैं उन्हें कभी क्रोधित या असंतुष्ट नहीं देखा जाता वे अपनी मुस्कान और प्यार से सभी का आदर सत्कार करती है।